नई दिल्ली: भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और भी पारदर्शी और प्रतिनिधित्वकारी बनाने के लिए 2013 में ‘नोटा’ (None of the Above – NOTA) का विकल्प पहली बार पेश किया गया। इस विकल्प का उद्देश्य था कि मतदाताओं को यह अधिकार दिया जाए कि वे किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट नहीं देना चाहते हैं। इस ब्लॉग में, हम देखेंगे कि 2013 से 2024 तक नोटा का सफर कैसा रहा है, इसका क्या प्रभाव पड़ा है, और भविष्य में इसकी क्या संभावनाएं हो सकती हैं।
NOTA का इतिहास
NOTA का मतलब होता है ‘इनमें से कोई नहीं’। इसे चुनाव आयोग ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम (Electronic Voting Machines) में शामिल किया था। सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2013 में अपने एक फैसले में कहा था कि लोकतंत्र में मतदाताओं के पास यह विकल्प होना चाहिए कि वे सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर सकें।
2014 के चुनाव में NOTA का प्रदर्शन
2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार NOTA का इस्तेमाल हुआ। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के अनुसार, इस चुनाव में NOTA को 1.08 फीसदी (60,00,197) वोट मिले। यह संख्या बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन यह दिखाता है कि कुछ मतदाता राजनीतिक दलों के द्वारा दिए गए उम्मीदवारों से असंतुष्ट थे।
2019 के चुनाव में NOTA का प्रदर्शन
2019 के लोकसभा चुनाव में NOTA को 1.06 फीसदी (65,23,975) वोट मिले। हालांकि, प्रतिशत में यह संख्या कम रही, लेकिन यह दर्शाता है कि मतदाता अभी भी इस विकल्प का उपयोग कर रहे हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, देश में NOTA का सबसे ज्यादा इस्तेमाल बिहार में किया गया, जहां दो फीसदी वोट NOTA को मिले।
NOTA का महत्व और कारण
NOTA को ईवीएम पर शामिल करने के प्रमुख कारण थे:
- लोकतांत्रिक अधिकार: जनता के पास अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, लेकिन उन्हें अस्वीकार करने का विकल्प भी होना चाहिए।
- राजनीतिक दलों को संदेश: NOTA के माध्यम से मतदाता यह बता सकते हैं कि अगर उम्मीदवार योग्य नहीं होंगे तो जनता उन्हें स्वीकार नहीं करेगी।
- गुप्त मतदान की आजादी: NOTA से सामान्य नागरिक को गुप्त मतदान के जरिए बिना किसी दबाव के अपनी बात रखने की आजादी मिलती है।
NOTA का चुनावों पर प्रभाव
NOTA का प्रभाव चुनाव परिणाम पर अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रहा है। कुछ क्षेत्रों में यह दर्शाता है कि मतदाता पार्टियों द्वारा उतारे गए उम्मीदवारों से खुश नहीं हैं। यदि किसी क्षेत्र में NOTA को काफी वोट मिलते हैं, तो यह राजनीतिक दलों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश होता है कि उन्हें अपनी नीति और नेता बदलने की आवश्यकता है।
NOTA की चुनौतियाँ
हालांकि, NOTA का भारतीय चुनावी प्रक्रिया पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ा है। मतदाता अपना असंतोष NOTA के जरिए जता रहे हैं, लेकिन इन मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक नहीं है कि राजनीतिक दलों पर उसका कुछ बड़ा असर पड़े। मौजूदा नियमों के तहत अगर मतदान में NOTA को सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं, तो भी NOTA के बाद सबसे अधिक वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग से जवाब मांगा है कि अगर NOTA को बहुमत मिले, तो क्या किया जाना चाहिए।
वैश्विक दृष्टिकोण: पोलैंड का उदाहरण
NOTA जैसे ही ‘राइट टू रिजेक्ट’ अधिकार का इस्तेमाल पोलैंड में 1989 के चुनाव में किया गया था। वहां सामाजिक आंदोलन और सरकार के खिलाफ बड़े असंतोष का परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्टों की सरकार गिर गई थी। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि अगर इस अधिकार का सही और बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाए, तो यह सरकारों पर भी असर डाल सकता है।
NOTA ने भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिससे मतदाताओं को अपनी असंतुष्टि व्यक्त करने का एक वैकल्पिक तरीका मिला है। हालांकि, यह अभी तक चुनाव परिणामों पर बड़ा प्रभाव नहीं डाल पाया है, लेकिन इसके महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।